पत्नी के कारण राजा बन गया था संन्यासी, छोटी सी गुफा में की थी तपस्या
6 वर्ष पहले(उस गुफा में जाने का रास्ता जहां राजा भृर्तहरि ने तपस्या की थी।)मध्यप्रदेश स्थापना दिवस विशेष: 1 नवंबर को प्रदेश का स्थापना दिवस है। इस अवसर पर प्रदेश के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति, कला, विकास और सुनी-अनसुनी कहानियों से आपको अवगत कराएगा। इस कड़ी में आज हम आपको बता रहे हैं, राजा भृर्तहरि के बारे में जिन्होंने अपनी पत्नी के कारण राजपाठ छोड़ दिया था।इंदौर। उज्जैन के महाराजा भर्तृहरि के संत बनने के पीछे कई तरह की कहानियां कही-सुनी जाती हैं। दो सबसे प्रचलित कहानियों में से एक के अनुसार अपनी सबसे प्रिय रानी पिंगला की बेवफाई से खिन्न होकर उन्होंने अपना राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को दे दिया और खुद गुरु गोरखनाथ के शिष्य बन कर संन्यास ले लिया। दूसरी कहानी के मुताबिक अपनी मृत्यु की झूठी खबर सुन कर रानी पिंगला के सती हो जाने के बाद वह गुरु गोरखनाथ की शरण में जा पहुंचे थे।
देश के अलग-अलग हिस्सों में उनके बारे में और भी कई कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन एक बात हर जगह मानी जाती है कि कल्पवृक्ष से मिले फल को खाने के कारण वह अमर हैं और खुद से जुड़े स्थानों पर अलग-अलग रूप में अक्सर आया करते हैं। राजा भर्तृहरि को नाथ संप्रदाय के साधु और भक्त अपना देवता मानते हैं। कहा जाता है कि अलवर (राजस्थान) के भर्तृहरि धाम में सदियों से अखंड ज्योति और धूनी जल रही है। स्थानीय लोग इसे भृतहरि के उसी नाम से पुकारते हैं, जिस नाम से राजा से संत बने भर्तृहरि को जाना जाता है। यहां राजा भर्तृहरि की समाधि है और माना जाता है कि इसे ईसा से सौ साल पहले भर्तृहरि के शिष्यों और अनुयायियों ने बनवाया था।
क्या पत्नी के वियोग में हो गए थे सन्यासी
एक कथा के अनुसार भृतहरि की पत्नी पिंगला जब किसी और पुरुष से प्यार करने लगती है, भृतहरि सन्यासी बनकर राज्य छोड़कर दूर चले जाते हैं। और एक कहानी बिल्कुल इसके विपरीत है जिसमें रानी पिंगला पति से बेहद प्रेम करती है। कहानी में राजा भृतहरि एक बार शिकार खेलने गए थे। उन्होंने वहाँ देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपनी जान दे दी। राजा भृतहरि बहुत ही आश्चर्य चकित हो गए उस पत्नी का प्यार देखकर। वे सोचने लगे कि क्या मेरी पत्नी भी मुझसे इतना प्यार करती है। अपने महल में वापस आकर राजा भृतहरि जब ये घटना अपनी पत्नी पिंगला से कहते हैं, पिंगला कहती है कि वह तो यह समाचार सुनने से ही मर जाएगी। चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। राजा भृतहरि सोचते हैं कि वे रानी पिंगला की परीक्षा लेकर देखेंगे कि ये बात सच है कि नहीं। फिर से भृतहरि शिकार खेलने जाते हैं और वहाँ से समाचार भेजते हैं कि राजा भृतहरि की मृत्यु हो गई। ये खबर सुनते ही रानी पिंगला मर जाती है। राजा भृतहरि बिल्कुल टूट जाता है, अपने आप को दोषी ठहराते हैं और विलाप करते हैं। पर गोरखनाथ की कृपा से रानी पिंगला जीवित हो जाती है। और इस घटना के बाद राजा भृतहरि गोरखनाथ के शिष्य बनकर चले जाते हैं।
या पत्नी के बेवफाई ने बनाया गोरखनाथ का शिष्य
उज्जयिनी अब उज्जैन के नाम से जाना जाता है। यहां के राजा थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को मिला। क्योंकि भृतहरि विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भृतहरि की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भृतहरि उससे ज्यादा प्यार करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भृतहरि के आदर सत्कार से तपस्वी गुरु खुश हो गए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे। चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल पिंगला को दिया कि पिंगला यह फल खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भृतहरि ने कोतवाल को बुलवा लिया। कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भृतहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भृतहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भृतहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।
या फिर यह कहानी सच हैएक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का शव घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली। और सन्यासी हो गए।इंद्र भी हो गए थे भयभीतराजा भृतहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भृतहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भृतहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृतहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भृतहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भृतहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृतहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।यहां है गुफाउज्जैन में भृतहरि की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भृतहरि ने तपस्या की थी। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भृतहरि का भतीजा था। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।अंतिम समय राजस्थान मेंराजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर (राजस्थान) के जंगल में है। उसके सातवें दरवाजे पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है। भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए। विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।विक्रमसंवत् से पहलेभर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे।
या फिर यह कहानी सच है
एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का शव घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली। और सन्यासी हो गए।
इंद्र भी हो गए थे भयभीत
राजा भृतहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भृतहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भृतहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृतहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भृतहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भृतहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृतहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।
यहां है गुफा
उज्जैन में भृतहरि की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भृतहरि ने तपस्या की थी। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भृतहरि का भतीजा था। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।
अंतिम समय राजस्थान में
राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर (राजस्थान) के जंगल में है। उसके सातवें दरवाजे पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है। भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए। विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है।
विक्रमसंवत् से पहले
भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे।
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